भूमिका

दो-शब्द:-भाषा भावों की वाहिका होती है। अपनी काव्य पुस्तक "सञ्जीवनी" में भाषा के माध्यम से एक लघु प्रयास किया है उन भावों को व्यक्त करने का जो कभी हमें खुशी प्रदान करते हैं, तो कभी ग़म। कभी हमें सोचने पर मजबूर कर देते हैं और हम अपने आप को असहाय सा महसूस करते हैं। सञ्जीवनी तीन काव्य-खण्डों का समूह है - 1.ब्रजबाला , 2.कृष्ण-सुदामा ,3.कृष्ण- गोपी प्रेम प्रथम खण्ड-काव्य "ब्रजबाला" मे श्री-राधा-कृष्ण के अमर प्रेम और श्री राधा जी की पीडा को व्यक्त करने का, दूसरे खण्ड-काव्य "कृष्ण-सुदामा" मे श्री-कृष्ण और सुदामा की मैत्री मे सुखद मिलन तथा तीसरे खण्ड-काव्य "कृष्ण - गोपी प्रेम" में श्री कृष्ण और गोपियों के प्रेम के को समझने का अति-लघु प्रयास किया है। साहित्य-कुंज मे यह ई-पुस्तक प्रकाशित है आशा करती हूँ पाठकों को मेरा यह लघु प्रयास अवश्य पसंद आएगा। — सीमा सचदेव

गुरुवार, 30 अप्रैल 2009

उद्धो - कृष्ण संवाद

गुम कृष्ण थे मीठी यादों में
उन कसमों और उन वादों में
जो वह गोपियों के संग करते
कभी-कभी उनसे थे डरते
यह सब उद्धो देख रहा था
और मन ही मन सोच रहा था
कृष्ण तो इतने बड़े हैं राजा
झुकती उनके सम्मुख परजा
फिर क्यों नहीँ वो खुश रहते हैं
कुछ न कुछ सोचते रहते हैं
क्या कमी है राज-महल में?
फिर क्यों रहते हैं अपने में?
सोचा उद्धो ने वह पूछे
शायद कृष्ण उससे कुछ कहदे
जाकर उसने कृष्ण को बुलाया
और प्यार से गले लगाया
बैठ के बोला उद्धो, कान्हा
मेरा तुमसे एक उलाहना
क्यों नहीँ तुम मिलकर रहते हो?
अपने ही में खोए रहते हो
माता-पिता हैं तुम्हे मिल गये
और सारे कार्य सिध हो गये
कंस का भय भी ख़तम हो गया
तेरे ही हाथों भस्म हो गया
मधुपुरी के तुम बन गये राजा
और सारी खुश भी है परजा
फिर मुझको यह समझ न आता
क्यों तुमको यह सब नहीँ भाता?
खोए रहते हो अपने में
ऐसे ही किसी न किसी सपने में
ब्रज में थे तुम केवल ग्वाले
बस गायों को चराने वाले
मिला क्या बोलो तुम्हे वहाँ पे?
जो सारा मिल गया यहाँ पे
तब तुम थे बुद्धि के कच्चे
पर अब नहीँ रहे तुम बच्चे

बस, बस भैया अब न बोलो
उस प्रेम को इससे न तोलो
जो ब्रज में था वो कहीं नहीँ
पर वो बातें अब रही नहीँ
यूँ कृष्ण उद्धो से कहने लगे
आँखों से अश्रु बहने लगे
मैं ब्रज को नहीँ भुला सकता
उस प्रेम को नहीँ बता सकता

कान्हा तुम बनो कुछ ज्ञानवान
ऐसे नहीँ बनाते हैं अनजान
तुम्हे प्रेम नहीँ शोभा देता
कोई राजा नहीँ यह कर सकता
यह प्रेम तो झूठा है जग में
पर तुम इसको क्यों नहीँ समझे?
ज्ञानी बन ज्ञान की बातें करो
इस प्रेम के पीछे न ही पड़ो
तुम राज्य का सुख भोगते हुए
और ध्यान ब्रह्म का करते हुए
खोलो अपने तुम दशों द्वार
और देखो वह ब्रह्म निराकार
अब ध्यान स्माधि में मोहन
लगा दो तुम अपना यह मन
मिलेगा तुमको परम ज्ञान
फिर बनोगे मुझ जैसे विद्वान

कान्हा ने जो उद्धो का अहम देखा
तब मन ही मन में यह सोचा
उद्धो में अहम समाया है
इस लिए तो वह भरमाया है
इस अहम को दूर करें कैसे?
और प्रेम को समझे यह जैसे
ज्ञानी उद्धो ! यह बड़ी बात
पर उसपे अहम, यह काली रात
यह मुझसे नहीँ यूँ मानेगा
मूरख ही मुझको जानेगा
नहीँ प्रेम है इसके जीवन में
बस अहम ही भर गया है मन में
क्यों न मैं अब ऐसा कर दूँ?
इसके जीवन में प्रेम भर दूँ
मैं खुद नहीँ यह कर पाऊँगा
हाँ ! ब्रज इसको पहुँचाऊँगा
पर यह क्यों ब्रज जाएगा?
कैसे प्रेम समझ यह पाएगा?

कुछ सोच के कान्हा यूँ बोले
उद्धो ! हम तो हैं बहुत भोले
तुम ज्ञानी हो गुणवान हो
और तुम तो बहुत महान हो
तुमने हमको समझा ही दिया
और ज्ञान का पाठ पढ़ा ही दिया
हम समझ गये तेरा कहना
अब प्रेम में जी के क्या लेना?
अब हम यह सब कुछ छोड़ेंगे
और ज्ञान से नाता जोड़ेंगे
पर गोपियों को अब भी दुविधा
नहीँ उनको हो रही है सुविधा
वह तो बस प्रेम दीवानी हैं
और कहाँ किसी की मानी हैं?
उनको मैं यह समझाऊँ कैसे?
कुछ नहीँ प्रेम ! यह बताऊँ कैसे?
उनको तो कुछ भी ज्ञान नहीँ
सिवाय प्रेम के कुछ परवान नहीँ
बस प्रेम में रोती रहती हैं
हर पल मुझे देखती रहती हैं
मेरे आने की चाहत में
राहों में बैठी रहती हैं
कभी मेरा रूप बनाती हैं
और मुरली मधुर बजाती हैं
मैं आऊँगा माखन खाने
यह सोच के माखन बनाती हैं
वह नहीँ बेचतीं दधि अपनी
बस मेरे ही लिए जो है रखनी
हर पल उम्मीद लगाती हैं
और आँखों को तरसाती हैं
अभी आएगा, अभी आएगा
आ करके मुरली बजाएगा
मटके वह भर कर रखती हैं
कान्हा यह माखन खायगा
इक टक मार्ग वह तकती हैं
नहीँ उनकी आँखें थकती हैं
न बोलती न ही हँसती हैं
मन ही मन जलती रहती हैं
कोई उलाहना भी नहीँ देतीं
मेरी निंदा भी नहीँ करतीं
मैं निकल न जाऊँ उनके दिल से
इस डर से आह नहीँ भरतीं
उनको अपनी परवाह नहीँ
और प्रेम के उनके थाह नहीँ
हर सुख-दुख उनका मर ही गया
जीने की भी उनको चाह नहीँ
उनको कुछ भी नहीँ चाहिए अभी
बस चाहती हैं मुझको सभी की सभी
मैं कैसे उन्हें यह समझा दूँ
और ज्ञान से परिचय करवा दूँ
तुम ज्ञानी हो समझा सकते
उन्हें ज्ञान का मारग बता सकते
जाओ तुम ब्रज, यह उचित होगा
कुछ गोपियों का भी हित होगा
प्रेम छोड़ कर ज्ञानी बनें
लगाके स्माधि कुछ ध्यानी बनें
तेरा तो कुछ नहीँ जाएगा
पर उनका भला हो जाएगा

कान्हा ने कहे जो ऐसे शब्द
उद्धो को हुआ अपने पे गर्व
खुश हो गया वह मन ही मन में
मानो सब मिल गया जीवन में
बोला ! कान्हा नहीँ फ़िक्र करो
लिखो पाती औ मेरा ज़िक्र करो
मैं कल ही ब्रज को जाऊँगा
ब्रजवासियों को समझाऊँगा
कान्हा भी मन में हँस ही दिए
उद्धो बातों में फँस ही गये
वह समझेगा, या समझाएगा
जानेगा , जब ब्रज जाएगा
पकड़े हुए कान्हा के खत को
उद्धो अब जा रहा था ब्रज को
मार्ग में सोचता ही जाता
यह ज्ञान तो सबको नहीँ आता
मैंने कान्हा को समझाया
तभी जाके समझ उसको आया
अब ब्रज जाकर समझाऊँगा
और एक इतिहास बनाऊँगा

रविवार, 22 फ़रवरी 2009

कृष्ण-गोपी प्रेम-ब्रज की याद

सञ्जीवनी - सर्ग : कृष्ण-गोपी प्रेम


ब्रज की याद


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आज याद कर रहे कृष्ण राधे
तुमने ही सब कारज साधे
बन कर मेरी अद्भुत शक्ति
भर दी मेरे मन में भक्ति
हर स्वास में नाम ही तेरा है
इसमें न कोई बस मेरा है
बस सोच रहे कान्हा मन में
जब रहते थे वृंदावन में
क्या करते थे माखन चोरी
और ग्वालों संग जोरा-ज़ोरी
क्या अद्भुत ही था वह स्वाद
मुझे आता है बार-बार वह याद
अब हूँ मैं मथुरा का नरेश
पर मन में तो इच्छा अब भी शेष
वह दही छाछ माखन चोरी
और माँ जसुदा की वो लोरी
वो गोपियों का माँ को उलाहना
और नंद- बाबा का संभालना
वो खेल जो यमुना के तीरे
करते थे हम धीरे- धीरे
वो मधुवन और वो कुंज गली
जहाँ गोपियाँ थी दही लेके चलीं
वो मटकी उनसे छीन लेना
और सारा दही गिरा देना
वो गोपियों का माँ से लड़ना
माँ का मुझ पर गुस्सा करना
तोड़ के मटकी भाग जाना
और इधर-उधर ही छुप जाना
कभी पेड़ों पे चढ़ना वन में
कभी जल-क्रीड़ा यमुना जल में
कभी हँसना तो कभी हँसाना
कभी रूठना, कभी मनाना
चुपके से निधिवन में जाना
गोपियों के संग रास रचाना
गाय चराने वन को जाना
और मीठी सी मुरली बजाना
मुरली बजा गायों को बुलाना
और उनका झट से आ जाना
बल भैया का माँ को बताना
और माँ का प्यार से गले लगाना
कभी कभी ऐसे छुप जाना
और फिर माँ को बड़ा सताना
दाऊ भैया का ढूँढ के लाना
और मैया का सज़ा सुनाना
वो मुझको रस्सी से बाँधना
और फिर अपने आप ही रोना
रो-रो कर अपना मुख धोना
और फिर देना मुझको खिलौना
वो चोरी से माखन खाते
जो ऊँचें छींके पे रखते
चढ़ते इक दूजे पे ऐसे
बनी हो कोई सीढ़ी जैसे
मधुवन में जा मुरली बजाना
मुरली सुन गोपियों का आना
गोपियों के संग रास रचाना
और फिर इधर-उधर हो जाना
ग्वालों के संग खेलते वन में
कभी नहाते यमुना जल में
कभी छुपते तो कभी छुपाते
इक दूजे को ढूँढ के लाते
झूलते वृक्ष के नीचे झूला
मैं अब तक वो नहीँ हूँ भूला
वो ऊँचे झूला ले जाना
वहाँ से कभी-कभी गिर जाना

सोमवार, 2 फ़रवरी 2009

कृष्ण - सुदामा (खण्ड - ३)

कृष्ण - सुदामा (खण्ड - ३)


जब जागा तो द्वारिका में था
कैसे पहुँचा ? यह समझा न था
अब दामा ने सोचा मन में
आ पहुँचा! तो क्यों न मिले उससे
मन पक्का करके जाएगा
और जाते ही उसे बताएगा
मुझे कुछ भी नहीं चाहिए उससे
बस मिलने की इच्छा है मन में
वो नहीं मिलेगा ! तो भी क्या?
वह दूर से उसको देखेगा
उसे देख के खुश हो जाएगा
यहाँ आना सफल हो जाएगा
यह सोच के पहुँच गया वह द्वार
और करेगा वहाँ बैठ इंतज़ार
कभी तो कृष्ण वहाँ आएगा
और वह दर्शन कर पाएगा
पर द्वारिका नगरी में कोई जन
इस तरह तो नहीं रह सकता
खाने को चाहे कुछ न हो
पर भूखे नहीं कोई सो सकता
वह नगरी समृद्धि से सम्पन्न
जहाँ रहती है लक्ष्मी ही स्वयं
वहाँ पर दिख गया कोई ऐसा जन
जिसका आधा नंगा है तन
वह द्वारिका का नहीं हो सकता
यूँ बाहर ही नहीं सो सकता
यह देखा तो आया द्वारपाल
दामा से करने लगा सवाल
तुम कौन हो? कहाँ से आए हो?
और कैसे कपड़े पाए हो?
हाथ जोड़ बोला ब्राहमण
श्री कृष्ण से मिलने का है मन
हम दोस्त हैं बचपन के सच्चे
हम दोनों ही थे तब बच्चे
किरपा होगी जो मिलवा दो
सुदामा हूँ मैं उसको बतला दो
सुन द्वारपाल यूँ हँसने लगे
और बातें बहुत ही करने लगे
पर एक था उनमें समझदार
और उसने मन में किया विचार
फटे वस्त्र हैं और जर्जर है तन
क्यों झूठ बोलेगा वह ब्राह्मन
क्यों न हम दूर करें यह भ्रम
शायद इसका दोस्त हो कृष्ण
क्यों न हम जाकर बतला दे
श्री कृष्ण से इसको मिलवा दें
इसका दरिद्र दूर हो जाएगा
और ढंग से यह जी पाएगा
यह सोच के आया वहाँ राजमहल
श्री कृष्ण जहाँ पे रहे टहल
जा कर यूँ बोला द्वारपाल
मुझे क्षमा करो हे क्षमनाथ
पर द्वार पे खड़ा है इक ब्राह्मण
आपसे मिलने का है उसका मन
बचपन की कथा सुनाता है
और नाम सुदामा बताता है
क्या........? कहते कृष्ण यूँ भाग पड़े
जैसे खुल गये हों भाग्य बड़े
वह नंगे पाँव ही भाग रहे
भाग्य सुदामा के जाग रहे
क्यों भागे कृष्ण? कोई न समझा
इसका क्या है कोई राज़ गहरा?
रुक्मणी भी पीछे भागने लगी
यह देख के सारी सेना जगी
दामा को सम्मुख देख लिया
और जा के गोद भर ही लिया
बहें दोनों की आँखों से अश्रुजल
बनकर धारा बिना कोई हलचल
बस दोनों ही हैं आज मूक
आँखों से भी नहीं हो रही चूक
इक टेक हैं दोनो देख रहे
कोई क्या कहे? और कैसे कहे?
भरे हुए दोनों के दिल
और बार-बार वो रहे मिल
नहीं रुक रहे उनके अश्रुजल
क्या भावुक हो गये थे वो पल
आँखों से बातें करते हैं
और मन की बात समझते हैं
मूक थी आँखों की भाषा
और कह गई सारी अभिलाषा
दोनों ही हैं आलिंगन बध
प्रकृति भी हो गई स्तब्ध
थम गई सारी ही चंचलता
रुक गया सूर्य का रथ चलता
श्री कृष्ण तो वहाँ पे गिर ही गये
दामा के चरणों में बैठ गये
धुल रहे चरण अश्रुजल से
क्या भावुक ही वो पल थे
पैरों में लगे कितने काँटे
पर दामा ने नहीं दुख बाँटे
पैरों में पड़ गये थे छाले
कोई लाल तो कोई थे काले
कान्हा उनको यूँ छूते हैं
और आँसुओं से ही धोते हैं
दामा के पैरों की सूजन
जो देख के रोया कान्हा का मन
फटे वस्त्र और जर्जर था तन
पर मिलने की थी इतनी लगन
कितने ही दिन से भूखा था
पर इसका उसको सुध कहाँ था
कान्हा तो बैठा रो ही रहा
आँसू से चरण था धो ही रहा
देख के यूँ दामा का प्यार
मिल गई दोनों को खुशी अपार
सब देख रहे दर्शक बन के
क्या दोनो ही हैं सच्चे मन के
क्या यही द्वारिका का है भूप?
कान्हा के न जाने कितने रूप?
दोनों ही रो रहे बिन बोले
दोनों ने नहीं हैं मुँह खोले
वाणी बंद है भावुक हृदय
कोई नहीं, जो उनसे कुछ कहदे
अब रुक्मणी ने कुछ किया विचार
दोनों का ही है प्यार अपार
दोनों ही हो रहे हैं भावुक
दोनों के लिए यह पल नाज़ुक
यह खामोशी नहीं जाएगी
जब तक बाधा नहीं आएगी
कुछ सोच के पास उनके आई
और देख के उनको मुस्काई
बोली वह यूँ मुस्काते हुए
कान्हा को थोड़ा हिलाते हुए
क्या ऐसे ही उसे रुलायोगे?
और हम से नहीं मिलवाओगे
अब कान्हा को आया विचार
वो खड़ा है महलों के बाहर
अंदर आने को कहा ही नहीं
तब बोलने को कुछ रहा ही नहीं
दामा के अश्रु पोंछ दिए
और फिर कान्हा ने वचन कहे
तुम झेलते रहे केवल दुख को
और मैं यहाँ भोग रहा सुख को
कैसे दोस्त हो तुम दामा?
क्या भूल गया तुम्हें ये श्यामा?
क्यों पास मेरे तुम नहीं आए
बस तुमने दुख ही दुख पाए
दामा के पास तो शब्द नहीं
वाणी का भी तो साथ नहीं
बस हाथ जोड़ कर रो ही रहा
मुख को आँसुओं से धो ही रहा
वो नहीं काबिल कुछ कह ही सके
पर कान्हा अब नहीं रह ही सके
सूझी मन में फिर से शरारत
देखी जो दामा के हाथ पोटल
दामा भी उसको समझ गया
और पीछे ही पीछे छुपा रहा
पर कान्हा कहाँ मानने वाला
वह सब कुछ ही जानने वाला
दामा से पोटल छीन ही ली
और बड़े प्यार से खोल ही ली
यह भाभी ने भेजे हैं चने
कितने ही प्यार से हैं ये बने
खाने लगे वो चने ऐसे
भूखे हों सदियों से जैसे
एक, दो और तीन मुट्ठी
वो खा ही गये जल्दी-जल्दी
जब चौथी मुट्ठी लगे खाने
रुक्मणी ने पकड़ लिए दाने
क्या सारे ही तुम खाओगे
या मेरे लिए भी बचाऊगे
यह देख के सारे हँस ही दिए
वो दोनों सब में बस ही गये
क्या दोस्ती का प्रमाण दिया
और दोस्ती को सच्चा नाम दिया
दोस्ती में दोनों का नाम हुआ
और सबने ही यह मान लिया
दोनों ही सच्चे दोस्त हैं
न इसमें कोई भी शक है
उनकी दोस्ती हो गई अमर
यह देख आँखें जाती है भर
दोनों का साथ प्यारा है
सारी दुनिया से न्यारा है।

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गुरुवार, 29 जनवरी 2009

कृष्ण - सुदामा (खण्ड - २)

कृष्ण - सुदामा (खण्ड - २)


हर्षित है उसका मन ऐसे
मिल गया हो नव जीवन जैसे
जैसे ही दामा ने कदम बढ़ाया
कृष्ण को भी वो याद था आया
बोले रुक्मणी से तब कृष्णा
याद आ रहा मुझे सुदामा
गुरुकुल के हम ऐसे बिछुड़े
और फिर अब हम कभी न मिले
कृष्ण ऐसे बतियाते जाते
दामा की बात बताते जाते
हँस देते कभी अनायास ही
और कभी भावुक हो जाते
रुक्मणी भी सुनकर हुई मग्न
भावुक हो गया उसका भी मन
क्या दोनों ही दोस्त सच्चे
पर तब थे दोनों ही बच्चे

इधर रास्ते पे चलते-चलते
याद कृष्ण को करते-करते
चल रहा था दामा मस्त हुए
लिए चने जो पत्नी ने थे दिए
जाकर के कृष्ण को दे देना
और सीधे-सीधे कह देना
मजबूर है आज उसकी भाभी
कुछ और नहीं वो दे सकती
सुदामा मन में विचार करे
श्री कृष्ण की ही पुकार करे
वह बन गया है द्वारिकाधीश
क्या मुझे पहचानेगा जगदीश
बस सोच-सोच चलता जाता
और आगे ही बढ़ता जाता
वह है राजा और मैं हूँ दीन
वो दिन नहीं जब खाते थे छीन
मेरे पास तो ऐसे वस्त्र नहीं
और ऐसा भी कोई अस्त्र नहीं
जिससे मैं राजा से मिल पाऊँ
मैं कौन हूँ ऐसा बतलाऊँ ?
क्यों कृष्ण उसे पहचानेगा?
क्यों दोस्त उसको मानेगा?
वह तो अब भूल गया होगा
गुरुकुल उसे याद कहाँ होगा?
वह बहुत बड़ा मैं बहुत छोटा
वह हीरा है मैं सिक्का खोटा
मैं पापी हूँ वह है जागपालक
वह सारे जाग का है मालिक
वह नहीं मुझे दोस्त मानेगा
और नहीं मुझे पहचानेगा
जब वह उसे दोस्त बताएगा
तो कृष्ण का सिर झुक जाएगा
वह दोस्त को नहीं झुका सकता
नहीं शर्मिंदा उसे कर सकता
जो कृष्ण का सिर झुक जाएगा
सुदामा नहीं वह सह पाएगा
दूजे ही पल सोचे दामा
नहीं ऐसा दोस्त है कृष्णा
वह तो इक सच्चा दोस्त है
बस मेरा ही मन विचलित है
मुझे याद है उसकी वो हर बात
हर पल दिया उसने मेरा साथ
वह खुद तकलीफ़ उठाता था
पर हर पल मुझे बचाता था
मेरी हर ग़लती को माफ़ किया
और हर पल दिल को साफ किया
ऐसा प्यारा वह दोस्त कृष्ण
फिर भी विचलित है मेरा मन?
वह कितना बड़ा बन गया राजा
झुकती है उसके सम्मुख परजा
उसमें तो अहम् आ गया होगा
सब कुछ ही भूल गया होगा
दामा के मन में है दुविधा
कान्हा को नहीं होगी सुविधा
उसे देख के होगा शर्मिंदा
और उसका तो कपड़ा भी है गंदा
अब दामा ने मन में विचार किया
और मन ही मन ये धार लिया
अब नहीं द्वारिका जाएगा
और नहीं कृष्ण को झुकाएगा
यह सोच के वापिस कदम किया
और ठोकर खा के गिर ही गया
गिरते ही उसने खोया होश
और खो दी सारी समझ-सोच

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मंगलवार, 20 जनवरी 2009

कृष्ण - सुदामा (खण्ड - १)

संजीवनी के द्वितीय खण्ड कृष्ण-सुदामा में श्री कृष्ण और सुदामा के मधुर मिलन का वर्णन है यह तेीन भागों मे विभक्त है
कृष्ण - सुदामा (खण्ड - १)

हरे कृष्ण - हरे श्यामा
हर पल जाप करे सुदामा
थी मन में उसके खुशी अनंत
जीवन में आ रहा था बसंत
पत्नी का शुक्र करे हर पल
मिल जाएगी उसको मंज़िल
सोच के मन हर्षित है उसका
इंतज़ार वर्षों से जिसका
पूरा होगा अब वो सपना
मिलेगा उसको दोस्त अपना
आज जब उससे बोली सुशीला
क्यों है ऐसे सुदामा ढीला?
जाओ तुम कृष्ण से मिलकर आओ
और थोड़े दिन मन बहलाओ
सुन के खुश हो गया था मन में
हुआ रोमांच पूरे ही तन में
याद कर रहा दिन बचपन के
बिताए इकट्ठे जो थे वन में
गुरुकुल में वे साथ थे रहते
सुख-दुख इक दूजे से कहते
जंगल से वो लकड़ी लाते
आकर गुरु माता को बताते
गुरु माता खाना थी बनाती
और प्यार से उन्हें खिलाती
आज सुदामा हो रहा भावुक
बता रहा था बात वो हर इक
कैसे वे इकट्ठे थे पढ़ते
और दोनों ही खेल थे करते
कभी-कभी था कृष्ण छुप जाता
और फिर उसको बड़ा सताता
ढूँढने से भी हाथ न आता
देख सुदामा को छुप जाता
ढूँढ-ढूँढ जब वह थक जाता
तब ही कान्हा पास आ जाता
सुदामा जब था रूठ ही जाता
तो बड़े प्यार से उसे मनाता
बीत गये वो दिन थे सुहाने
खाते थे छुप-छुप कर दाने
जो गुरु माता हमें थी देती
दोनों को तगीद थी करती
मिलकर दोनों ये खा लेना
आधे-आधे बाँट ही लेना
कभी कृष्ण तो कभी मैं खाता
जिसका भी था दाँव लग जाता
कैसे दोनों लकड़ी चुनते
और फिर उसको इकट्ठा करते
लकड़ी सदा कृष्ण ही उठाता
कितना उसका ध्यान था रखता
इक दिन दोनों गये जंगल में
दाने थे कुछ ही पोटल में
वर्षा और आँधी थी काली
चढ़ गये दोनों वृक्ष की डाली
अलग-अलग बैठे थे दोनों
वर्षा में थे घिर गये थे दोनों
ठंडी से दोनों ठिठुर रहे थे
दाँत पे दाँत भी बज रहे थे
सुदामा के पास थी दानों की पोटल
हुई उसके मन में कुछ हलचल
दोनों ही को भूख लगी थी
पर तब कहाँ वर्षा ही रुकी थी
दामा को जो भूख सताए
तो थोड़े से दाने खाए
थोड़े से उसने रख छोड़े थे
जो थे कान्हा के हिस्से के
पर वो भूख को कब तक जरता
भूखा मरता क्या न करता?
खा गया दामा वो भी दाने
जो बाकी थे कृष्ण ने खाने
वर्षा थी जब ख़त्म हो गई
और धरती पानी को पी गई
वृक्ष से उतरे थे फिर दोनों
और किया दोनों ने आलिंगन
कृष्ण ने पूछा भूख के मारे
कहाँ गये वो दाने सारे ?
दामा अपने सिर को झुका कर
खा लिए! बोला था लज्जा कर
तो क्या हुआ? कृष्ण बोला था
हँस कर उसने टाल दिया था
मैंने जो गुरु माता को बताया
कृष्ण ने सबको खूब हँसाया
इसी तरह से हँसते- गाते
खेलते, पढ़ते, खुशी मनाते
बीत गये वो दिन जीवन के
शिष्य थे जब गुरु संदीपन के
कृष्ण की करते-करते बात
बीत गई यूँ सारी रात
तैयार हुआ अब दामा अकेला
कृष्ण से मिलने जाएगा द्वारिका

गुरुवार, 15 जनवरी 2009

ब्रजबाला -5 राधा-कृष्ण संवाद

संजीवनी के प्रथम खण्ड ब्रजबाला भाग ५ मे श्री राधा-कृष्ण संवाद और अमर प्रेम का वर्णन है

राधा-कृष्ण संवाद


सुनी देवो की जो करुण पुकार
हुई कृष्ण की दृष्टि भी अपार
जब देखी उग्र रूप राधा
कान्हा ने यह निर्णय साधा
किसी तरह राधा को मनाऊँ मैं
अपना स्वरूप बताऊँ मैं
कान्हा ने मन में विचार किया
चतुर्भुज रूप साकार किया

राधा ने देखा जो सम्मुख
कान्हा को देख के हुई चकित
गिर कर के राधा चरणों पर
रो-रो कर कहती, हे नटवर
राधा की सौंगंध है तुमको
मथुरा न जाओ तजकर हमको
बिन तेरे जी न पाएँगे
तुम्हे बिन देखे मर जाएँगे
अधूरी है तुम बिन यह राधा
इस लिए मैंने निर्णय साधा
जो मधुपुरी को तुम जाओगे
जिंदा न मुझे फिर पाओगे
मैं प्राण त्याग दूँगी कान्हा
रहेगा तुम पर यह उलाहना

इक प्रेम दीवानी मौन हुई
कहो प्रेम में ग़लती कौन हुई?
गिरा ब्रजरानी का अश्रुजल
धुल गये कान्हा के चरण-कमल
हाथों से उसे उठाते हैं
फिर प्यार से गले लगाते हैं
राधा के पोंछते हुए नयन
बोले कान्हा यह मधुर वचन

तुम क्यों अधीर हो रही प्रिय
अब ध्यान से मेरी सुनो विनय
तुम प्रेम की देवी हो राधे
सब प्रेम से ही कारज साधे
फिर रूठी है क्यों मेरी प्रिया
कहो, तुम बिन मैंने किया क्या?
राधे तुम मेरी शक्ति हो
तुम ही मेरी भक्ति हो
अधूरा है तेरे बिना कृष्ण
तुम बिन नहीं माने मेरा मन
दो शरीर और एक प्राण
करते हुए ऐसा आलिंगन

गिर रहे राधा के अश्रुकन
भावुक हो गया कान्हा का मन
कहने को नहीं कोई शब्द रहे
कोई क्या कहे? और कैसे कहे?
प्रिया-प्रियतम दोनों हुए मौन
दोनों को समझाएगा कौन?
फिर कान्हा ने तोड़ते हुए मौन

लेकर राधा का मधुर चुंबन
मैंने तेरी हर बात मानी
शक्ति हो तुम मेरी आह्लादिनी
राधा और कृष्ण कहाँ हैं भिन्न
मोहन राधा, राधा मोहन
दिखने में तो हम दो हैं तन
पर एक है हम दोनों का मन

प्रिया-प्रियतम मिलकर हुए एक
कहो किसकी है ऐसी भाग्य रेख?
वो जगत-पिता, वो जग-माता
करुणा से हृदय भर जाता
दोनों कोमल दोनों सुंदर
बस समझे उसको मन-मंदिर
इक पीत वरण, इक श्याम-गात
छवि देख के मनुजनमा लजात
एक टेक दोनों रहे देख
कुदरत ने भी खोया विवेक
थम गई सारी चंचलता
रुक गया सूर्य का रथ चलता
दोनों हैं बस आलिंगनबद्ध
प्रकृति भी हो गई स्तब्ध
वो करुण हृदय,वो भावुक मन
नयनों में भरे हुए अश्रुकन
नहीं अलग हो रहे उनके तन
जल रहे ज्वाला में शीत बदन
बस प्रेम है उनके नयनों में
उनके तन में, उनके मन में
हृदय की हर धड़कन में
और बार-बार आलिंगन में
सब कहने की है उनकी आशा
पर प्यार की होती है कब भाषा
भाषा है प्यार की आँखों में
बस प्रेमी ही समझें लाखों में
मूक है आँखों की भाषा
कह देती मन की अभिलाषा
प्यार की भाषा के अश्रुकन
पढ़ सकते जिसको प्रेमीजन
देख के उन आँखों की चमक
हो जाते उनमें मग्न प्रियतम
बस आँसू उनको ख़टकते हैं
निशी दिन जो बरसते रहते हैं
मुँह से बोला नहीं शब्द एक
प्रिय-प्रिया फिर भी हो गये एक
कह दी उन्होंने बातें अनेक
कोई भी समझ पाया न नेक
घायल हो जाते हैं दो दिल
बिन बोले कैसे जाएँ मिल?
बिन बोले हो न सके अपने
लेकर के आँखों में सपने
प्रिया-प्रियतम फिर अलग हुए
और प्यार से ही कुछ शब्द कहे
हो गये दोनों के नेत्र सजल
जैसे खिले हों कोई नील कमल
नहीं प्यार के उनके कोई सीमा
हो रहे भावुक प्रिय-प्रियतमा
राधा फिर धीरे से बोली
और प्यार भारी अखियाँ खोली

कान्हा, राधा हो न जाए ख़त्म
न जाओ मधुपुरी, तुम्हें मेरी कसम
जो तुम चले जाओगे मथुरा
कैसे जी पाएगी राधा?
जीवन भर साथ निभाने का
किया था तुमने मुझसे वादा
छू कर राधा गिरधर के चरण
न भूलो अपना दिया वचन
दिखा कर मुझको सुंदर सपने
क्या भूलोगे वायदे अपने?
जब पकड़ा तुमने मेरा हाथ
अब छोड़ चले क्यों मेरा साथ
मुझे याद है तेरा पहला स्पर्श
भर दिया था मन मेरे में हर्ष
तुम भूल भी जाओ पर नटवर
मैं भूल न पाऊँगी मरकर
यह प्यार था तुम्हीं ने शुरू किया
जब पहली बार तूने मुझे छुआ
तेरी प्यार चिंगारी अब गिरधर
बन गई ज्वाला मेरे अंदर
दिन-रात ये मुझे जलाती है
आँखों से नीर पिलाती है
जब प्रेम निभा ही नहीं सकते
फिर प्रेम दिखाते हो क्यों मोहन?
जब प्यार भरा दिल नहीं रखते
करते हो फिर क्यों आलिंगन?
मैं थी जब जल भरने आई
तूने लेते हुए अंगड़ाई
पूछा था मुझे इशारे से
कब बजेगी तेरी शहनाई?
मैंने भी कहा इशारे से
तू माँग मेरी को अभी भर दे
तब तूने अपनी माँ से कहा
माँ मेरी भी शादी करदे
लिखी फिर तूने प्रेम-पाती
हम भी होंगे जीवन-साथी
नहीं मिलेंगे फिर हम छिप-छिपकर
हो जाएँगे एक, अति सुंदर
फिर जब मैं जाने लगी घर
ले गये तुम मुझको पकड़ भीतर
ले जा के मुझे इक कोने में
मेरे नयना थे रोने में
कहे थे तुमने बस इतने शब्द
तुम रोओगी मुझको होगा दर्द
लिए झट से मैंने आँसू पोंछ
सुध-बुध भूली, नहीं रहा होश
मुझे जब भी तूने दी आवाज़
मैं भूल गई सब काम-काज
और चली आई तज लोक-लाज
फिर छोड़ चले तुम मुझको आज
क्यों तुमने मुझे सताया था?
सखियों के मध्य बुलाया था
ले-ले कर तुमने मेरा नाम
कर दिया मुझको सब में बदनाम
मैं रोक सकी न चाह कर भी
तुम छेड़ते थे मुझे राह पर भी
मैं लोगों में थी सकुचाती
पर मन ही मन खुश हो जाती
जब मिले थे मुझको कुंज गली
मैं दधि की मटकी ले के चली
साथ थी मेरे सब सखियाँ
फिर भी न रुकीं तेरी अखियाँ
आँखों से मुझे बुला ही लिया
नयनों से तीर चला ही दिया
वह तीर लगा मेरे सीने में
फिर कहाँ थी राधा जीने में?
सुध-बुध खोकर मैं गिर ही गई
सब सखियों से मैं घिर ही गई
फिर आए थे तुम जल्दी-ल्दी
और उठा लिया अपनी गोदी
हृदय में ज्वाला रही धधक
इक टेक बाँध गई अपनी पलक
उस भावना में हम बह ही गये
इक दूजे के बस हो ही गये
तब भूल गई हमको सखियाँ
मुस्का रहीं थी उनकी अखियाँ
तुम यमुना तट पर आ करके
और वंशी मधुर बजा करके
जब तुमने पुकारा था राधा
तब तोड़ दी मैंने सब बाधा
मैं आई थी तब भाग-भाग
और लगा था किस्मत गई जाग
तुम मीठी-मीठी बातों से
सताते थे मुझको रातों में
बस साथ है तेरा सुखदाई
हर रात मैं तुझे मिलने आई
मुझसे लिपटी मानस पीड़ा
जब कर रहे थे हम जलक्रीड़ा
जल रहे थे हम यमुना जल में
और आग थी पानी की हलचल में
प्रकृति ने छेड़ा था संगीत
थी गीत बन गई अपनी प्रीत

बस-बस राधे न हो भावुक
न छेड़ो वह बातें नाज़ुक
क्यों भूल रही हो तुम राधा?
कान्हा है तेरे बिन आधा
नारी नहीं हो तुम साधारण
फिर क्यों विचलित है तेरा मन
राधा से भिन्न कहाँ कान्हा
फिर कैसा तेरा उलाहना?
दो देह मगर इक प्राण हैं हम
क्योंकि भू पर इंसान हैं हम
करने पुर कुछ सत्य कर्म
लिया है हमने यह मानव जन्म
उस कर्म को पूरा करना है
फिर क्यों कंस से डरना है
ऐसा नहीं कर सकती राधा
नहीं कर्म में बन सकती बाधा
तुम याद वह अपना रूप करो
और धैर्य धरो बस धैर्य धरो
मेरा वादा है यह तुमसे
तुम भिन्न नहीं होगी मुझसे
पहले तुम स्वयम् को पहिचानो
शक्ति हो मेरी यह मानो
बिन शक्ति के क्या मैं लड़ सकता?
क्या प्यार को रुसवा कर सकता?

सुन राधा ने नेत्र किए बंद
देखा तो पाया वह आनंद
राधा तो कृष्ण में समा ही गई
परछाई अपनी छोड़ चली
छाया भी न रह सकी बिन कान्हा
दिया उसने भी एक उलाहना

विचलित है छाया का भी मन
ले लिया उसने भी एक वचन
जो मुझे छोड़ कर जाओगे
तुम मुरली नहीं बजाओगे
मुझको अपनी मुरली दे दो
तुम जाके कर्म पूरा करदो
अब मुरली तुम जो बजाओगे
मुझे नहीं अलग कर पाओगे
मुरली सुन मैं आ जाऊँगी
और कर्म में बाधा बन जाऊँगी
अब तुम बिन मैं ब्रज में रहकर
मुरली से हर सुख-दुख कहकर
मानव का कर्म निभाऊँगी
जाओ तुम मैं रह जाऊँगी

मुरली को सौंप गये कान्हा
क्या लीला हुई? कोई न जाना
कान्हा का खेल निराला है
कहाँ कोई समझने वाला है
उसका यह रूप निराला है
पर शक्ति तो ब्रजबाला है

मंगलवार, 13 जनवरी 2009

ब्रजबाला-4. देव स्तुति

संजीवनी के प्रथम खण्ड ब्रजबाला के इस चौथे भाग मे देवों द्वारा श्री राधा जी की स्तुति की गई है जब राधा जी श्री कृष्ण जी के मथुरा जाने की बात सुन कर क्रोधित हो उठती है तो देव श्री कृष्ण स्तुति कर श्री राधा जी को शान्त करने की प्रार्थना करते हैं

देव स्तुति


जय कृष्ण कृष्ण जय जय गोपाल
जय गिरधारी जय नंदलाल
जय कृष्ण कन्हैया मुरलीधर
जय राधा वल्लभ जय नटवर
जै बंसी बजैया मन मोहन
हम आए हैं तेरी शरणम
जय जय गोविंद जय जय गोपाल
जै रास रचैया दीन दयाल
जय जय माधव जय मुरलीधर
हम आए तेरे दर नटवर
जय रसिकेश्वर जै जै घनश्याम
हे मन भावन हे सुंदर श्याम
जय ब्रजेश्वर जय जय गिरधर
किरपा करो वृंदावनेश्वर
जय जय माधव जय मधुसूदन
जय दामोदर जय पुरुषोत्तम
जय नारायण जय वासुदेव
जय विश्व रूप जय जय केशव
जय सत्य हरी जय नारायण
जय विष्णु केशव जनार्दन
जय कृष्ण कन्हैया दीं दयाल
जय मुरली मनोहर जय गोपाल
जन जीवन का उद्धार करो
सब कष्ट हरो सब कष्ट हरो
धरती को पाप मुक्त करने
आए दुखियों के कष्ट हरने
करें हाथ जोरि कर निवेदन
राधा का कोप न बने विघ्न


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गुरुवार, 8 जनवरी 2009

ब्रजबाला-3. शक्ति स्वरूपिणी राधा

ब्रजबाला भाग तीन शक्ति स्वरूपिणी राधा मे श्री राधा जी की अद्भुत शक्ति और श्री कृष्ण जी के प्रति उनका अनन्य प्रेम व्यक्त किया है जब श्री राधा जी को ( द्वित्तीय भाग-व्याकुल मन ) पता चलता है कि श्री कृष्ण जी माता यशोदा के पुत्र नही है ,वो मथुरा जाने वाले हैं और वहां पर कंस श्री कृष्ण संग
युद्ध करने वाला है तो वह अत्यंत क्रोधित हो उठती है इस भाग मे उसी का वर्णन है

शक्ति स्वरूपिणी राधा


सुनो ब्रह्मा विष्णु औ महेश
गंधर्व मुनि किन्नर औ शेष
हे गौरी चन्डी काली शक्ति,
की मैंने जो जीवन में भक्ति
उस बल पर मैं पुकारती हूँ
रिपु कंस को मैं ललकारती हूँ
कान्हा से प्रेम किया है तो
जीवन भर उसे निभाऊँगी
प्रण करती हूँ यह कंस को मैं
मारूँगी या मार जाऊँगी
कान्हा जो नहीं रह पाएगा
सृष्टि में न कोई बच पाएगा
मैं भयंकर प्रलय मचा दूँगी
दुनिया को कर स्वाह दूँगी
राधा ने ये जो शब्द बोले
शिवजी ने तीन नेत्र खोले
सृष्टि में हाहाकार हुआ
भयभीत सारा संसार हुआ
तूफान उठे बिजली कड़की
जलधारा उल्टी बह निकली
त्रिलोक में हुआ कंपन
भयभीत हुए सब देवतगन
शिवजी से करने लगे पुकार
सृष्टि का कहीं न हो संहार
हे ब्रह्म पिता सृष्टि पालक
रक्षा करो सृष्टि की मालिक
हे विष्णु जग पालन करता
हे करुणा निधि हे दुख हरता
अपना यह रूप साकार करो
त्रिलोक का उद्धार करो
सब लगे सोचने देवतगन
गंधर्व मुनि नर औ किन्नर
साधारण नहीं है ये नारी
सृष्टि जिसके सम्मुख हारी
इस सृष्टि का विनाश होगा
ब्रह्मा के सृजन का नाश होगा
कोई भी नहीं बच पाएगा
केवल शून्य रह जाएगा
रोका नहीं तो अनुचित होगा
संहार रोकना उचित होगा
किसकी हिम्मत जो जा के कहे
माँ धैर्य धरे और शांत रहे
हैं कृष्ण नहीं साधारण जन
फिर क्यों अस्थिर है माँ का मन
माँ से ही तो जग पलता है
उसको विनाश कब फलता है
गिरधर तो सब का प्यारा है
वह कहाँ किसी से हारा है
क्या कंस कृष्ण का बिगाड़ेगा
निश्चय ही अह्‌म वश हारेगा
क्या भूल गई हैं ब्रजरानी
श्री कृष्ण की इतनी कुर्बानी
मुरली की सुन के मधुर धुन
हो जाते हैं त्रिलोक मगन
गिरिराज उठा जो सकता है
कौन उसके सम्मुख टिकता है
सेवा में जिसकी शेषनाग
पी थी जिसने दो बार आग
विष का जिस पर न प्रभाव हुआ
उल्टे दुष्ट का उद्धार किया
जिसने इतने दानव तारे
भेजे जो कंस ने वो सब मारे
भ्रम ब्रज वालों का दूर किया
अभिमान इंदर का चूर किया
नाथ कर के शेषनाग काला
विष मुक्त यमुना को कर डाला
गया माया का प्रभाव फैल
टूटे ताले खुल गई जेल
मथुरा से आ गये गोकुल
हुई न ज़रा सी भी हलचल
नारायण हैं वे श्री कृष्ण
जागपालक हैं वे श्री कृष्ण
दुख हरते हैं वे श्री कृष्ण
सुख करते हैं वे श्री कृष्ण
शिव, ब्रह्मा, विष्णु विचार करें
श्री कृष्ण की क्यों न पुकार करें
यह लीला उनकी वही जानें
श्री कृष्ण से ही राधा माने
जगजननी माँ श्री राधा को
श्री कृष्ण ही सबसे प्यारे हैं
लीलाधारी की लीला के
खेल अदभुत और न्यारे हैं
सब देवता श्याम स्तुति गाते
कर के पद कमलों की सेवा
श्री कृष्ण गोविंद हारे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव

मंगलवार, 6 जनवरी 2009

ब्रजबाला-2. व्याकुल मन

संजीवनी के प्रथम खण्ड ब्रजबाला का यह द्वितीय भाग ,जिसमे श्री राधा को किसी अनहोनी का भय सताता है और श्री कृष्ण की कुशल-मंगल की कामना करती है उसका मन व्याकुल है ,
इसमे श्री राधा -ललिता (सखी) संवाद है
व्याकुल मन

राधा - व्याकुल आज मेरा मन क्यों ?
क्यों चैन कहीं नहीं पाता है ?
तड़प-तड़प कर हृदय यह,
जैसे बाहर को आता है।

हैं फरक रहे दाहिने अंग क्यों ?
अमंगल संकेत कराते हैं।
यह नेत्र मेरे अश्रु जल से,
क्यों बार-बार भर जाते हैं ?

मेरा रोम-रोम क्यों काँप रहा ?
ज्वाला हृदय में धधक रही।
दर्शन की प्यासी यह आँखें,
क्यों बार-बार यों छलक रहीं ?

कहीं फिर न हों संकट में प्रियतम,
यह बार-बार दिल गाता है।
हे गौरी माँ हो रक्षक तुम,
तू जग-जननी शक्ति माता है।

हे शिव शंकर तुम सदा शिव हो,
कुछ मेरा भी कल्याण करो।
कान्हा का बाल न बाँका हो,
चाहे मेरे ही तुम प्राण हरो।

हे ब्रह्म सुनो सृष्टि करता,
हे भाग्य विधाता दुख हरता।
अपना यह नाम साकार करो,
मेरे प्राण-प्रिय का उद्धार करो।

हे गणपति बाबा जागञानदन,
करती हूँ तेरा अभिनंदन।
देखो यह मेरा करुण रुदन,
जल्दी काटो हमरे बंधन।

हे राम भक्त बजरंग बली,
देखो अब मेरी जान चली।
दे दो तुम ऐसी संजीवन,
हो जाए हमारा मधुर मिलन।

ललिते, तुम भी क्यों खड़ी मौन,
कहो लाई हो संदेस कौन ?
कहो कौन सा देव मनाऊँ मैं?
अपने प्रियतम को बचाऊँ मैं।

मुख मंडल तेरा उदास क्यों?
लग रही है मुझे निरास क्यों?
ललिता:-सखी राधिके न हो तू अधीर,
कर सकते हैं क्या हम अहीर।

सुनती हूँ मैं यह दूर-दूर,
मथुरा से आया है अक्रूर।
कान्हा को ले जाने मथुरा,
बहाना उसका है साफ सुथरा।

जसुदा का सुत नहीं है गिरधर,
कहा रख कर जान हथेली पर।
वासुदेव छोड़ गये थे कान्हा,
ले गये उठा नंद की कन्या।

अब कंस कृशन को बुलाता है,
वह धनुष यज्ञ करवाता है।
वहाँ दुष्ट रिपु ललकारेगा,
धोखे से कृशन को मारेगा।

राधा:-नहीं, नहीं करती हुई कान बंद,
बोली राधा हो कर उदंड।
कान्हा जो मथुरा जाएगा,
सृष्टि में प्रलय मच जाएगा

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रविवार, 4 जनवरी 2009

ब्रजबाला- 1.प्रार्थना

ब्रजबाला
ब्रजबाला मे श्री राधा-कृष्ण के अमर प्रेम को व्यक्त करने का एक अति लघु प्रयास है। जब श्री राधा जी को पता चलता है कि श्री कृष्ण ब्रज छोड़ कर मथुरा जाने वाले है तो तो वह व्याकुल हो उठती है। इसी का वर्णन इस कविता के माध्यम से किया गया है। यह पाँच भागों में विभक्त है :
1. प्रार्थना
2. व्याकुल मन
3. शक्ति स्वरूपिणी राधा
4. देव स्तुति
5. राधा-कृष्ण संवाद

प्रार्थना

स्वामिनी मेरी श्री राधिका
मैं ब्रजरानी की दास

पावन चरणन में प्रीति रख
लेकर के अटल विश्वास
श्री बिहारी जी की प्रेरणा
और प्रिया दर्शन की आस

करती हूँ कर जोरि के
तुम्हें बार-बार प्रणाम
मेरे हृदय को तृप्त करो
पावन है तुम्हारो नाम

भव सागर से तर जाऊँ मैं
गाऊँ मैं आठों याम
तेरा नाम सुमिर श्री राधिका
पाऊँ श्री कृष्ण पद धाम

यही आशा इस मन की है
गुण-गान तेरा गाते-गाते
जीवन को सफल बनाऊँ मैं
इस दुनिया से जाते-जाते

मैं नहीं काबिल लेकिन फिर भी
चाहती हूँ कुछ तो काम करूँ
है सोच-सोच कर देख लिया
क्यों न मैं तेरा ध्यान धरूँ

हैं शब्द नहीं लेकिन फिर भी
मैं तेरा ही गुण-गान करूँ
जो थाह मिले तेरे चरणन की
फिर क्यों मैं चारों धाम करूँ

माँ मुझे इतनी सद्‌बुद्धि दे
तेरे नाम का मैं गुण-गान करूँ
ये भाव हृदय के बहा करके
इस जीवन का कल्याण करूँ


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