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गोपी -उद्धो संवाद

दूर से देखा रथ आता ब्रज वालों का ठनका माथा लगा कान्हा आ रहा आज वहाँ हो गये इक्ट्ठे थे जहाँ तहाँ रथ देख के आगे भाग पड़े लगा भाग्य हैं उनके जाग पड़े कान्हा से मिलने की इतनी लगन उस तरफ था भगा हर इक जन पास से देखा तो चकित हुए यह तो अपना कान्हा है नहीँ यह तो कोई और ही है रथ पर क्यों आया है वो इस पथ पर? उद्धो , रुका पास में आकर बुलाया नंद बाबा को जाकर उनको अपना परिचय करवाते कान्हा का संदेस सुनाते वो चुपचाप ही सुन रहे थे सुन कर कुछ भी न बोले थे न खुशी न गम ही जतलाया थोड़ा उद्धो का मन भर आया देखी जो उसने माँ जसुदा उद्धो का मन भी भर गया था देखी जो राधा की सूरत वो लगी थी पत्थर की मूरत साहस नहीँ वह कुछ जाके कहे वह क्या कहे? और कैसे कहे? देखी थी पास खड़ी सखियाँ पत्थर थी उनकी भी अखियाँ जाकर के पास कुछ न बोला बस कान्हा का पत्तर खोला कान्हा ने दिया, बस यही कहा फिर होश किसी को नहीँ रहा कान्हा ने भेजी यह पाती छीना और लगा लिया छाती सब उस पाती को खोने लगी और आँसुओं से उसे ढोने लगी उस कागद पर आँसू जो पड़े पाती के अक्षर सभी धूल गये स्याम स्याही में अश्रु मिलकर हो गई पाती भी स्याम धूलकर उस कागद को ही चूम रह...