भूमिका

दो-शब्द:-भाषा भावों की वाहिका होती है। अपनी काव्य पुस्तक "सञ्जीवनी" में भाषा के माध्यम से एक लघु प्रयास किया है उन भावों को व्यक्त करने का जो कभी हमें खुशी प्रदान करते हैं, तो कभी ग़म। कभी हमें सोचने पर मजबूर कर देते हैं और हम अपने आप को असहाय सा महसूस करते हैं। सञ्जीवनी तीन काव्य-खण्डों का समूह है - 1.ब्रजबाला , 2.कृष्ण-सुदामा ,3.कृष्ण- गोपी प्रेम प्रथम खण्ड-काव्य "ब्रजबाला" मे श्री-राधा-कृष्ण के अमर प्रेम और श्री राधा जी की पीडा को व्यक्त करने का, दूसरे खण्ड-काव्य "कृष्ण-सुदामा" मे श्री-कृष्ण और सुदामा की मैत्री मे सुखद मिलन तथा तीसरे खण्ड-काव्य "कृष्ण - गोपी प्रेम" में श्री कृष्ण और गोपियों के प्रेम के को समझने का अति-लघु प्रयास किया है। साहित्य-कुंज मे यह ई-पुस्तक प्रकाशित है आशा करती हूँ पाठकों को मेरा यह लघु प्रयास अवश्य पसंद आएगा। — सीमा सचदेव

रविवार, 22 फ़रवरी 2009

कृष्ण-गोपी प्रेम-ब्रज की याद

सञ्जीवनी - सर्ग : कृष्ण-गोपी प्रेम


ब्रज की याद


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आज याद कर रहे कृष्ण राधे
तुमने ही सब कारज साधे
बन कर मेरी अद्भुत शक्ति
भर दी मेरे मन में भक्ति
हर स्वास में नाम ही तेरा है
इसमें न कोई बस मेरा है
बस सोच रहे कान्हा मन में
जब रहते थे वृंदावन में
क्या करते थे माखन चोरी
और ग्वालों संग जोरा-ज़ोरी
क्या अद्भुत ही था वह स्वाद
मुझे आता है बार-बार वह याद
अब हूँ मैं मथुरा का नरेश
पर मन में तो इच्छा अब भी शेष
वह दही छाछ माखन चोरी
और माँ जसुदा की वो लोरी
वो गोपियों का माँ को उलाहना
और नंद- बाबा का संभालना
वो खेल जो यमुना के तीरे
करते थे हम धीरे- धीरे
वो मधुवन और वो कुंज गली
जहाँ गोपियाँ थी दही लेके चलीं
वो मटकी उनसे छीन लेना
और सारा दही गिरा देना
वो गोपियों का माँ से लड़ना
माँ का मुझ पर गुस्सा करना
तोड़ के मटकी भाग जाना
और इधर-उधर ही छुप जाना
कभी पेड़ों पे चढ़ना वन में
कभी जल-क्रीड़ा यमुना जल में
कभी हँसना तो कभी हँसाना
कभी रूठना, कभी मनाना
चुपके से निधिवन में जाना
गोपियों के संग रास रचाना
गाय चराने वन को जाना
और मीठी सी मुरली बजाना
मुरली बजा गायों को बुलाना
और उनका झट से आ जाना
बल भैया का माँ को बताना
और माँ का प्यार से गले लगाना
कभी कभी ऐसे छुप जाना
और फिर माँ को बड़ा सताना
दाऊ भैया का ढूँढ के लाना
और मैया का सज़ा सुनाना
वो मुझको रस्सी से बाँधना
और फिर अपने आप ही रोना
रो-रो कर अपना मुख धोना
और फिर देना मुझको खिलौना
वो चोरी से माखन खाते
जो ऊँचें छींके पे रखते
चढ़ते इक दूजे पे ऐसे
बनी हो कोई सीढ़ी जैसे
मधुवन में जा मुरली बजाना
मुरली सुन गोपियों का आना
गोपियों के संग रास रचाना
और फिर इधर-उधर हो जाना
ग्वालों के संग खेलते वन में
कभी नहाते यमुना जल में
कभी छुपते तो कभी छुपाते
इक दूजे को ढूँढ के लाते
झूलते वृक्ष के नीचे झूला
मैं अब तक वो नहीँ हूँ भूला
वो ऊँचे झूला ले जाना
वहाँ से कभी-कभी गिर जाना

सोमवार, 2 फ़रवरी 2009

कृष्ण - सुदामा (खण्ड - ३)

कृष्ण - सुदामा (खण्ड - ३)


जब जागा तो द्वारिका में था
कैसे पहुँचा ? यह समझा न था
अब दामा ने सोचा मन में
आ पहुँचा! तो क्यों न मिले उससे
मन पक्का करके जाएगा
और जाते ही उसे बताएगा
मुझे कुछ भी नहीं चाहिए उससे
बस मिलने की इच्छा है मन में
वो नहीं मिलेगा ! तो भी क्या?
वह दूर से उसको देखेगा
उसे देख के खुश हो जाएगा
यहाँ आना सफल हो जाएगा
यह सोच के पहुँच गया वह द्वार
और करेगा वहाँ बैठ इंतज़ार
कभी तो कृष्ण वहाँ आएगा
और वह दर्शन कर पाएगा
पर द्वारिका नगरी में कोई जन
इस तरह तो नहीं रह सकता
खाने को चाहे कुछ न हो
पर भूखे नहीं कोई सो सकता
वह नगरी समृद्धि से सम्पन्न
जहाँ रहती है लक्ष्मी ही स्वयं
वहाँ पर दिख गया कोई ऐसा जन
जिसका आधा नंगा है तन
वह द्वारिका का नहीं हो सकता
यूँ बाहर ही नहीं सो सकता
यह देखा तो आया द्वारपाल
दामा से करने लगा सवाल
तुम कौन हो? कहाँ से आए हो?
और कैसे कपड़े पाए हो?
हाथ जोड़ बोला ब्राहमण
श्री कृष्ण से मिलने का है मन
हम दोस्त हैं बचपन के सच्चे
हम दोनों ही थे तब बच्चे
किरपा होगी जो मिलवा दो
सुदामा हूँ मैं उसको बतला दो
सुन द्वारपाल यूँ हँसने लगे
और बातें बहुत ही करने लगे
पर एक था उनमें समझदार
और उसने मन में किया विचार
फटे वस्त्र हैं और जर्जर है तन
क्यों झूठ बोलेगा वह ब्राह्मन
क्यों न हम दूर करें यह भ्रम
शायद इसका दोस्त हो कृष्ण
क्यों न हम जाकर बतला दे
श्री कृष्ण से इसको मिलवा दें
इसका दरिद्र दूर हो जाएगा
और ढंग से यह जी पाएगा
यह सोच के आया वहाँ राजमहल
श्री कृष्ण जहाँ पे रहे टहल
जा कर यूँ बोला द्वारपाल
मुझे क्षमा करो हे क्षमनाथ
पर द्वार पे खड़ा है इक ब्राह्मण
आपसे मिलने का है उसका मन
बचपन की कथा सुनाता है
और नाम सुदामा बताता है
क्या........? कहते कृष्ण यूँ भाग पड़े
जैसे खुल गये हों भाग्य बड़े
वह नंगे पाँव ही भाग रहे
भाग्य सुदामा के जाग रहे
क्यों भागे कृष्ण? कोई न समझा
इसका क्या है कोई राज़ गहरा?
रुक्मणी भी पीछे भागने लगी
यह देख के सारी सेना जगी
दामा को सम्मुख देख लिया
और जा के गोद भर ही लिया
बहें दोनों की आँखों से अश्रुजल
बनकर धारा बिना कोई हलचल
बस दोनों ही हैं आज मूक
आँखों से भी नहीं हो रही चूक
इक टेक हैं दोनो देख रहे
कोई क्या कहे? और कैसे कहे?
भरे हुए दोनों के दिल
और बार-बार वो रहे मिल
नहीं रुक रहे उनके अश्रुजल
क्या भावुक हो गये थे वो पल
आँखों से बातें करते हैं
और मन की बात समझते हैं
मूक थी आँखों की भाषा
और कह गई सारी अभिलाषा
दोनों ही हैं आलिंगन बध
प्रकृति भी हो गई स्तब्ध
थम गई सारी ही चंचलता
रुक गया सूर्य का रथ चलता
श्री कृष्ण तो वहाँ पे गिर ही गये
दामा के चरणों में बैठ गये
धुल रहे चरण अश्रुजल से
क्या भावुक ही वो पल थे
पैरों में लगे कितने काँटे
पर दामा ने नहीं दुख बाँटे
पैरों में पड़ गये थे छाले
कोई लाल तो कोई थे काले
कान्हा उनको यूँ छूते हैं
और आँसुओं से ही धोते हैं
दामा के पैरों की सूजन
जो देख के रोया कान्हा का मन
फटे वस्त्र और जर्जर था तन
पर मिलने की थी इतनी लगन
कितने ही दिन से भूखा था
पर इसका उसको सुध कहाँ था
कान्हा तो बैठा रो ही रहा
आँसू से चरण था धो ही रहा
देख के यूँ दामा का प्यार
मिल गई दोनों को खुशी अपार
सब देख रहे दर्शक बन के
क्या दोनो ही हैं सच्चे मन के
क्या यही द्वारिका का है भूप?
कान्हा के न जाने कितने रूप?
दोनों ही रो रहे बिन बोले
दोनों ने नहीं हैं मुँह खोले
वाणी बंद है भावुक हृदय
कोई नहीं, जो उनसे कुछ कहदे
अब रुक्मणी ने कुछ किया विचार
दोनों का ही है प्यार अपार
दोनों ही हो रहे हैं भावुक
दोनों के लिए यह पल नाज़ुक
यह खामोशी नहीं जाएगी
जब तक बाधा नहीं आएगी
कुछ सोच के पास उनके आई
और देख के उनको मुस्काई
बोली वह यूँ मुस्काते हुए
कान्हा को थोड़ा हिलाते हुए
क्या ऐसे ही उसे रुलायोगे?
और हम से नहीं मिलवाओगे
अब कान्हा को आया विचार
वो खड़ा है महलों के बाहर
अंदर आने को कहा ही नहीं
तब बोलने को कुछ रहा ही नहीं
दामा के अश्रु पोंछ दिए
और फिर कान्हा ने वचन कहे
तुम झेलते रहे केवल दुख को
और मैं यहाँ भोग रहा सुख को
कैसे दोस्त हो तुम दामा?
क्या भूल गया तुम्हें ये श्यामा?
क्यों पास मेरे तुम नहीं आए
बस तुमने दुख ही दुख पाए
दामा के पास तो शब्द नहीं
वाणी का भी तो साथ नहीं
बस हाथ जोड़ कर रो ही रहा
मुख को आँसुओं से धो ही रहा
वो नहीं काबिल कुछ कह ही सके
पर कान्हा अब नहीं रह ही सके
सूझी मन में फिर से शरारत
देखी जो दामा के हाथ पोटल
दामा भी उसको समझ गया
और पीछे ही पीछे छुपा रहा
पर कान्हा कहाँ मानने वाला
वह सब कुछ ही जानने वाला
दामा से पोटल छीन ही ली
और बड़े प्यार से खोल ही ली
यह भाभी ने भेजे हैं चने
कितने ही प्यार से हैं ये बने
खाने लगे वो चने ऐसे
भूखे हों सदियों से जैसे
एक, दो और तीन मुट्ठी
वो खा ही गये जल्दी-जल्दी
जब चौथी मुट्ठी लगे खाने
रुक्मणी ने पकड़ लिए दाने
क्या सारे ही तुम खाओगे
या मेरे लिए भी बचाऊगे
यह देख के सारे हँस ही दिए
वो दोनों सब में बस ही गये
क्या दोस्ती का प्रमाण दिया
और दोस्ती को सच्चा नाम दिया
दोस्ती में दोनों का नाम हुआ
और सबने ही यह मान लिया
दोनों ही सच्चे दोस्त हैं
न इसमें कोई भी शक है
उनकी दोस्ती हो गई अमर
यह देख आँखें जाती है भर
दोनों का साथ प्यारा है
सारी दुनिया से न्यारा है।

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