कृष्ण - सुदामा (खण्ड - ३)
जब जागा तो द्वारिका में था
कैसे पहुँचा ? यह समझा न था
अब दामा ने सोचा मन में
आ पहुँचा! तो क्यों न मिले उससे
मन पक्का करके जाएगा
और जाते ही उसे बताएगा
मुझे कुछ भी नहीं चाहिए उससे
बस मिलने की इच्छा है मन में
वो नहीं मिलेगा ! तो भी क्या?
वह दूर से उसको देखेगा
उसे देख के खुश हो जाएगा
यहाँ आना सफल हो जाएगा
यह सोच के पहुँच गया वह द्वार
और करेगा वहाँ बैठ इंतज़ार
कभी तो कृष्ण वहाँ आएगा
और वह दर्शन कर पाएगा
पर द्वारिका नगरी में कोई जन
इस तरह तो नहीं रह सकता
खाने को चाहे कुछ न हो
पर भूखे नहीं कोई सो सकता
वह नगरी समृद्धि से सम्पन्न
जहाँ रहती है लक्ष्मी ही स्वयं
वहाँ पर दिख गया कोई ऐसा जन
जिसका आधा नंगा है तन
वह द्वारिका का नहीं हो सकता
यूँ बाहर ही नहीं सो सकता
यह देखा तो आया द्वारपाल
दामा से करने लगा सवाल
तुम कौन हो? कहाँ से आए हो?
और कैसे कपड़े पाए हो?
हाथ जोड़ बोला ब्राहमण
श्री कृष्ण से मिलने का है मन
हम दोस्त हैं बचपन के सच्चे
हम दोनों ही थे तब बच्चे
किरपा होगी जो मिलवा दो
सुदामा हूँ मैं उसको बतला दो
सुन द्वारपाल यूँ हँसने लगे
और बातें बहुत ही करने लगे
पर एक था उनमें समझदार
और उसने मन में किया विचार
फटे वस्त्र हैं और जर्जर है तन
क्यों झूठ बोलेगा वह ब्राह्मन
क्यों न हम दूर करें यह भ्रम
शायद इसका दोस्त हो कृष्ण
क्यों न हम जाकर बतला दे
श्री कृष्ण से इसको मिलवा दें
इसका दरिद्र दूर हो जाएगा
और ढंग से यह जी पाएगा
यह सोच के आया वहाँ राजमहल
श्री कृष्ण जहाँ पे रहे टहल
जा कर यूँ बोला द्वारपाल
मुझे क्षमा करो हे क्षमनाथ
पर द्वार पे खड़ा है इक ब्राह्मण
आपसे मिलने का है उसका मन
बचपन की कथा सुनाता है
और नाम सुदामा बताता है
क्या........? कहते कृष्ण यूँ भाग पड़े
जैसे खुल गये हों भाग्य बड़े
वह नंगे पाँव ही भाग रहे
भाग्य सुदामा के जाग रहे
क्यों भागे कृष्ण? कोई न समझा
इसका क्या है कोई राज़ गहरा?
रुक्मणी भी पीछे भागने लगी
यह देख के सारी सेना जगी
दामा को सम्मुख देख लिया
और जा के गोद भर ही लिया
बहें दोनों की आँखों से अश्रुजल
बनकर धारा बिना कोई हलचल
बस दोनों ही हैं आज मूक
आँखों से भी नहीं हो रही चूक
इक टेक हैं दोनो देख रहे
कोई क्या कहे? और कैसे कहे?
भरे हुए दोनों के दिल
और बार-बार वो रहे मिल
नहीं रुक रहे उनके अश्रुजल
क्या भावुक हो गये थे वो पल
आँखों से बातें करते हैं
और मन की बात समझते हैं
मूक थी आँखों की भाषा
और कह गई सारी अभिलाषा
दोनों ही हैं आलिंगन बध
प्रकृति भी हो गई स्तब्ध
थम गई सारी ही चंचलता
रुक गया सूर्य का रथ चलता
श्री कृष्ण तो वहाँ पे गिर ही गये
दामा के चरणों में बैठ गये
धुल रहे चरण अश्रुजल से
क्या भावुक ही वो पल थे
पैरों में लगे कितने काँटे
पर दामा ने नहीं दुख बाँटे
पैरों में पड़ गये थे छाले
कोई लाल तो कोई थे काले
कान्हा उनको यूँ छूते हैं
और आँसुओं से ही धोते हैं
दामा के पैरों की सूजन
जो देख के रोया कान्हा का मन
फटे वस्त्र और जर्जर था तन
पर मिलने की थी इतनी लगन
कितने ही दिन से भूखा था
पर इसका उसको सुध कहाँ था
कान्हा तो बैठा रो ही रहा
आँसू से चरण था धो ही रहा
देख के यूँ दामा का प्यार
मिल गई दोनों को खुशी अपार
सब देख रहे दर्शक बन के
क्या दोनो ही हैं सच्चे मन के
क्या यही द्वारिका का है भूप?
कान्हा के न जाने कितने रूप?
दोनों ही रो रहे बिन बोले
दोनों ने नहीं हैं मुँह खोले
वाणी बंद है भावुक हृदय
कोई नहीं, जो उनसे कुछ कहदे
अब रुक्मणी ने कुछ किया विचार
दोनों का ही है प्यार अपार
दोनों ही हो रहे हैं भावुक
दोनों के लिए यह पल नाज़ुक
यह खामोशी नहीं जाएगी
जब तक बाधा नहीं आएगी
कुछ सोच के पास उनके आई
और देख के उनको मुस्काई
बोली वह यूँ मुस्काते हुए
कान्हा को थोड़ा हिलाते हुए
क्या ऐसे ही उसे रुलायोगे?
और हम से नहीं मिलवाओगे
अब कान्हा को आया विचार
वो खड़ा है महलों के बाहर
अंदर आने को कहा ही नहीं
तब बोलने को कुछ रहा ही नहीं
दामा के अश्रु पोंछ दिए
और फिर कान्हा ने वचन कहे
तुम झेलते रहे केवल दुख को
और मैं यहाँ भोग रहा सुख को
कैसे दोस्त हो तुम दामा?
क्या भूल गया तुम्हें ये श्यामा?
क्यों पास मेरे तुम नहीं आए
बस तुमने दुख ही दुख पाए
दामा के पास तो शब्द नहीं
वाणी का भी तो साथ नहीं
बस हाथ जोड़ कर रो ही रहा
मुख को आँसुओं से धो ही रहा
वो नहीं काबिल कुछ कह ही सके
पर कान्हा अब नहीं रह ही सके
सूझी मन में फिर से शरारत
देखी जो दामा के हाथ पोटल
दामा भी उसको समझ गया
और पीछे ही पीछे छुपा रहा
पर कान्हा कहाँ मानने वाला
वह सब कुछ ही जानने वाला
दामा से पोटल छीन ही ली
और बड़े प्यार से खोल ही ली
यह भाभी ने भेजे हैं चने
कितने ही प्यार से हैं ये बने
खाने लगे वो चने ऐसे
भूखे हों सदियों से जैसे
एक, दो और तीन मुट्ठी
वो खा ही गये जल्दी-जल्दी
जब चौथी मुट्ठी लगे खाने
रुक्मणी ने पकड़ लिए दाने
क्या सारे ही तुम खाओगे
या मेरे लिए भी बचाऊगे
यह देख के सारे हँस ही दिए
वो दोनों सब में बस ही गये
क्या दोस्ती का प्रमाण दिया
और दोस्ती को सच्चा नाम दिया
दोस्ती में दोनों का नाम हुआ
और सबने ही यह मान लिया
दोनों ही सच्चे दोस्त हैं
न इसमें कोई भी शक है
उनकी दोस्ती हो गई अमर
यह देख आँखें जाती है भर
दोनों का साथ प्यारा है
सारी दुनिया से न्यारा है।
******************************
नाच नचावे मुरली
9 माह पहले
4 टिप्पणियां:
achha laga khand kavya ka tisra, dusra aur pahala bhag. ek hissa 1200 shabdon ka kavya khand aap likh rahi hain. khas kar hindu dharm granthon par sadhuwaad.
कृष्ण-सुदामा की कथा,
देती है संदेश.
बहुत कीमती पदों से,
रिश्ते 'सलिल' विशेष.
नहीं दोस्ती की कभी,
कोई सीमा मीत.
'सलिल' बंध निर्बंध यह,
जीवन की शुभ नित.
गत पखवाडे गया था,
'सलिल' द्वारका धाम.
देख सुदामा का महल.
हुआ स्फुरित चाम.
सीमा ने यह कथा लिख,
दी मुझको यह सीख.
सखा कृष्ण सा बन 'सलिल',
मत अभिमानी दीख.
-sanjivsalil.blogspot.com
-divyanarmada.blogspot.com
Send Valentine's Roses Online
Send Valentine's Gifts Online
एक टिप्पणी भेजें