भूमिका

दो-शब्द:-भाषा भावों की वाहिका होती है। अपनी काव्य पुस्तक "सञ्जीवनी" में भाषा के माध्यम से एक लघु प्रयास किया है उन भावों को व्यक्त करने का जो कभी हमें खुशी प्रदान करते हैं, तो कभी ग़म। कभी हमें सोचने पर मजबूर कर देते हैं और हम अपने आप को असहाय सा महसूस करते हैं। सञ्जीवनी तीन काव्य-खण्डों का समूह है - 1.ब्रजबाला , 2.कृष्ण-सुदामा ,3.कृष्ण- गोपी प्रेम प्रथम खण्ड-काव्य "ब्रजबाला" मे श्री-राधा-कृष्ण के अमर प्रेम और श्री राधा जी की पीडा को व्यक्त करने का, दूसरे खण्ड-काव्य "कृष्ण-सुदामा" मे श्री-कृष्ण और सुदामा की मैत्री मे सुखद मिलन तथा तीसरे खण्ड-काव्य "कृष्ण - गोपी प्रेम" में श्री कृष्ण और गोपियों के प्रेम के को समझने का अति-लघु प्रयास किया है। साहित्य-कुंज मे यह ई-पुस्तक प्रकाशित है आशा करती हूँ पाठकों को मेरा यह लघु प्रयास अवश्य पसंद आएगा। — सीमा सचदेव

मंगलवार, 6 जनवरी 2009

ब्रजबाला-2. व्याकुल मन

संजीवनी के प्रथम खण्ड ब्रजबाला का यह द्वितीय भाग ,जिसमे श्री राधा को किसी अनहोनी का भय सताता है और श्री कृष्ण की कुशल-मंगल की कामना करती है उसका मन व्याकुल है ,
इसमे श्री राधा -ललिता (सखी) संवाद है
व्याकुल मन

राधा - व्याकुल आज मेरा मन क्यों ?
क्यों चैन कहीं नहीं पाता है ?
तड़प-तड़प कर हृदय यह,
जैसे बाहर को आता है।

हैं फरक रहे दाहिने अंग क्यों ?
अमंगल संकेत कराते हैं।
यह नेत्र मेरे अश्रु जल से,
क्यों बार-बार भर जाते हैं ?

मेरा रोम-रोम क्यों काँप रहा ?
ज्वाला हृदय में धधक रही।
दर्शन की प्यासी यह आँखें,
क्यों बार-बार यों छलक रहीं ?

कहीं फिर न हों संकट में प्रियतम,
यह बार-बार दिल गाता है।
हे गौरी माँ हो रक्षक तुम,
तू जग-जननी शक्ति माता है।

हे शिव शंकर तुम सदा शिव हो,
कुछ मेरा भी कल्याण करो।
कान्हा का बाल न बाँका हो,
चाहे मेरे ही तुम प्राण हरो।

हे ब्रह्म सुनो सृष्टि करता,
हे भाग्य विधाता दुख हरता।
अपना यह नाम साकार करो,
मेरे प्राण-प्रिय का उद्धार करो।

हे गणपति बाबा जागञानदन,
करती हूँ तेरा अभिनंदन।
देखो यह मेरा करुण रुदन,
जल्दी काटो हमरे बंधन।

हे राम भक्त बजरंग बली,
देखो अब मेरी जान चली।
दे दो तुम ऐसी संजीवन,
हो जाए हमारा मधुर मिलन।

ललिते, तुम भी क्यों खड़ी मौन,
कहो लाई हो संदेस कौन ?
कहो कौन सा देव मनाऊँ मैं?
अपने प्रियतम को बचाऊँ मैं।

मुख मंडल तेरा उदास क्यों?
लग रही है मुझे निरास क्यों?
ललिता:-सखी राधिके न हो तू अधीर,
कर सकते हैं क्या हम अहीर।

सुनती हूँ मैं यह दूर-दूर,
मथुरा से आया है अक्रूर।
कान्हा को ले जाने मथुरा,
बहाना उसका है साफ सुथरा।

जसुदा का सुत नहीं है गिरधर,
कहा रख कर जान हथेली पर।
वासुदेव छोड़ गये थे कान्हा,
ले गये उठा नंद की कन्या।

अब कंस कृशन को बुलाता है,
वह धनुष यज्ञ करवाता है।
वहाँ दुष्ट रिपु ललकारेगा,
धोखे से कृशन को मारेगा।

राधा:-नहीं, नहीं करती हुई कान बंद,
बोली राधा हो कर उदंड।
कान्हा जो मथुरा जाएगा,
सृष्टि में प्रलय मच जाएगा

*****************************

3 टिप्‍पणियां:

Akanksha Yadav ने कहा…

व्याकुल आज मेरा मन क्यों ?
क्यों चैन कहीं नहीं पाता है ?
तड़प-तड़प कर हृदय यह,
जैसे बाहर को आता है।......अद्भुत, भावों की सरस अभिव्यंजना. कभी हमारे 'शब्दशिखर' www.shabdshikhar.blogspot.com पर भी पधारें !!

प्रदीप मानोरिया ने कहा…

सुंदर कविता बहुत अच्छी है आपके भावो की सटीक अभिव्यक्ति
प्रदीप मानोरिया
09425132060

Daisy ने कहा…

Best Valentine's Day Roses Online
Best Valentine's Day Gifts Online
online cakes delivery in India