भूमिका

दो-शब्द:-भाषा भावों की वाहिका होती है। अपनी काव्य पुस्तक "सञ्जीवनी" में भाषा के माध्यम से एक लघु प्रयास किया है उन भावों को व्यक्त करने का जो कभी हमें खुशी प्रदान करते हैं, तो कभी ग़म। कभी हमें सोचने पर मजबूर कर देते हैं और हम अपने आप को असहाय सा महसूस करते हैं। सञ्जीवनी तीन काव्य-खण्डों का समूह है - 1.ब्रजबाला , 2.कृष्ण-सुदामा ,3.कृष्ण- गोपी प्रेम प्रथम खण्ड-काव्य "ब्रजबाला" मे श्री-राधा-कृष्ण के अमर प्रेम और श्री राधा जी की पीडा को व्यक्त करने का, दूसरे खण्ड-काव्य "कृष्ण-सुदामा" मे श्री-कृष्ण और सुदामा की मैत्री मे सुखद मिलन तथा तीसरे खण्ड-काव्य "कृष्ण - गोपी प्रेम" में श्री कृष्ण और गोपियों के प्रेम के को समझने का अति-लघु प्रयास किया है। साहित्य-कुंज मे यह ई-पुस्तक प्रकाशित है आशा करती हूँ पाठकों को मेरा यह लघु प्रयास अवश्य पसंद आएगा। — सीमा सचदेव

मंगलवार, 20 जनवरी 2009

कृष्ण - सुदामा (खण्ड - १)

संजीवनी के द्वितीय खण्ड कृष्ण-सुदामा में श्री कृष्ण और सुदामा के मधुर मिलन का वर्णन है यह तेीन भागों मे विभक्त है
कृष्ण - सुदामा (खण्ड - १)

हरे कृष्ण - हरे श्यामा
हर पल जाप करे सुदामा
थी मन में उसके खुशी अनंत
जीवन में आ रहा था बसंत
पत्नी का शुक्र करे हर पल
मिल जाएगी उसको मंज़िल
सोच के मन हर्षित है उसका
इंतज़ार वर्षों से जिसका
पूरा होगा अब वो सपना
मिलेगा उसको दोस्त अपना
आज जब उससे बोली सुशीला
क्यों है ऐसे सुदामा ढीला?
जाओ तुम कृष्ण से मिलकर आओ
और थोड़े दिन मन बहलाओ
सुन के खुश हो गया था मन में
हुआ रोमांच पूरे ही तन में
याद कर रहा दिन बचपन के
बिताए इकट्ठे जो थे वन में
गुरुकुल में वे साथ थे रहते
सुख-दुख इक दूजे से कहते
जंगल से वो लकड़ी लाते
आकर गुरु माता को बताते
गुरु माता खाना थी बनाती
और प्यार से उन्हें खिलाती
आज सुदामा हो रहा भावुक
बता रहा था बात वो हर इक
कैसे वे इकट्ठे थे पढ़ते
और दोनों ही खेल थे करते
कभी-कभी था कृष्ण छुप जाता
और फिर उसको बड़ा सताता
ढूँढने से भी हाथ न आता
देख सुदामा को छुप जाता
ढूँढ-ढूँढ जब वह थक जाता
तब ही कान्हा पास आ जाता
सुदामा जब था रूठ ही जाता
तो बड़े प्यार से उसे मनाता
बीत गये वो दिन थे सुहाने
खाते थे छुप-छुप कर दाने
जो गुरु माता हमें थी देती
दोनों को तगीद थी करती
मिलकर दोनों ये खा लेना
आधे-आधे बाँट ही लेना
कभी कृष्ण तो कभी मैं खाता
जिसका भी था दाँव लग जाता
कैसे दोनों लकड़ी चुनते
और फिर उसको इकट्ठा करते
लकड़ी सदा कृष्ण ही उठाता
कितना उसका ध्यान था रखता
इक दिन दोनों गये जंगल में
दाने थे कुछ ही पोटल में
वर्षा और आँधी थी काली
चढ़ गये दोनों वृक्ष की डाली
अलग-अलग बैठे थे दोनों
वर्षा में थे घिर गये थे दोनों
ठंडी से दोनों ठिठुर रहे थे
दाँत पे दाँत भी बज रहे थे
सुदामा के पास थी दानों की पोटल
हुई उसके मन में कुछ हलचल
दोनों ही को भूख लगी थी
पर तब कहाँ वर्षा ही रुकी थी
दामा को जो भूख सताए
तो थोड़े से दाने खाए
थोड़े से उसने रख छोड़े थे
जो थे कान्हा के हिस्से के
पर वो भूख को कब तक जरता
भूखा मरता क्या न करता?
खा गया दामा वो भी दाने
जो बाकी थे कृष्ण ने खाने
वर्षा थी जब ख़त्म हो गई
और धरती पानी को पी गई
वृक्ष से उतरे थे फिर दोनों
और किया दोनों ने आलिंगन
कृष्ण ने पूछा भूख के मारे
कहाँ गये वो दाने सारे ?
दामा अपने सिर को झुका कर
खा लिए! बोला था लज्जा कर
तो क्या हुआ? कृष्ण बोला था
हँस कर उसने टाल दिया था
मैंने जो गुरु माता को बताया
कृष्ण ने सबको खूब हँसाया
इसी तरह से हँसते- गाते
खेलते, पढ़ते, खुशी मनाते
बीत गये वो दिन जीवन के
शिष्य थे जब गुरु संदीपन के
कृष्ण की करते-करते बात
बीत गई यूँ सारी रात
तैयार हुआ अब दामा अकेला
कृष्ण से मिलने जाएगा द्वारिका

3 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

khand -2 ka intezaar rahega...

Divya Narmada ने कहा…

सीमा जी! यह कथा है,
दिव्य प्रेरणा स्रोत.
कृष्ण-सुदामा मित्र हैं,
जैसे रवि-खद्योत.
जैसे रवि खद्योत,
न दूरी लेकिन उनमें.
रहे निकटता ऐसी ही,
सच्चे मित्रों में.
कहे 'सलिल' कविराय,
निभाओ सच्ची यारी.
वरना छोडो साथ,
व्रार्थ मत कर बटमारी.

-sanjivsalil.blogspot.com / divyanarmada.blogspot.com

Daisy ने कहा…

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