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उद्धो - कृष्ण संवाद

गुम कृष्ण थे मीठी यादों में उन कसमों और उन वादों में जो वह गोपियों के संग करते कभी-कभी उनसे थे डरते यह सब उद्धो देख रहा था और मन ही मन सोच रहा था कृष्ण तो इतने बड़े हैं राजा झुकती उनके सम्मुख परजा फिर क्यों नहीँ वो खुश रहते हैं कुछ न कुछ सोचते रहते हैं क्या कमी है राज-महल में? फिर क्यों रहते हैं अपने में? सोचा उद्धो ने वह पूछे शायद कृष्ण उससे कुछ कहदे जाकर उसने कृष्ण को बुलाया और प्यार से गले लगाया बैठ के बोला उद्धो, कान्हा मेरा तुमसे एक उलाहना क्यों नहीँ तुम मिलकर रहते हो? अपने ही में खोए रहते हो माता-पिता हैं तुम्हे मिल गये और सारे कार्य सिध हो गये कंस का भय भी ख़तम हो गया तेरे ही हाथों भस्म हो गया मधुपुरी के तुम बन गये राजा और सारी खुश भी है परजा फिर मुझको यह समझ न आता क्यों तुमको यह सब नहीँ भाता? खोए रहते हो अपने में ऐसे ही किसी न किसी सपने में ब्रज में थे तुम केवल ग्वाले बस गायों को चराने वाले मिला क्या बोलो तुम्हे वहाँ पे? जो सारा मिल गया यहाँ पे तब तुम थे बुद्धि के कच्चे पर अब नहीँ रहे तुम बच्चे बस, बस भैया अब न बोलो उस प्रेम को इससे न तोलो जो ब्रज में था वो कहीं नहीँ पर वो बा

कृष्ण-गोपी प्रेम-ब्रज की याद

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सञ्जीवनी - सर्ग : कृष्ण-गोपी प्रेम ब्रज की याद -------------------------------------------------------------------------------- आज याद कर रहे कृष्ण राधे तुमने ही सब कारज साधे बन कर मेरी अद्भुत शक्ति भर दी मेरे मन में भक्ति हर स्वास में नाम ही तेरा है इसमें न कोई बस मेरा है बस सोच रहे कान्हा मन में जब रहते थे वृंदावन में क्या करते थे माखन चोरी और ग्वालों संग जोरा-ज़ोरी क्या अद्भुत ही था वह स्वाद मुझे आता है बार-बार वह याद अब हूँ मैं मथुरा का नरेश पर मन में तो इच्छा अब भी शेष वह दही छाछ माखन चोरी और माँ जसुदा की वो लोरी वो गोपियों का माँ को उलाहना और नंद- बाबा का संभालना वो खेल जो यमुना के तीरे करते थे हम धीरे- धीरे वो मधुवन और वो कुंज गली जहाँ गोपियाँ थी दही लेके चलीं वो मटकी उनसे छीन लेना और सारा दही गिरा देना वो गोपियों का माँ से लड़ना माँ का मुझ पर गुस्सा करना तोड़ के मटकी भाग जाना और इधर-उधर ही छुप जाना कभी पेड़ों पे चढ़ना वन में कभी जल-क्रीड़ा यमुना जल में कभी हँसना तो कभी हँसाना कभी रूठना, कभी मनाना चुपके से निधिवन में जाना गोपियों के संग रास रचाना गाय चराने वन को जाना और मीठी सी

कृष्ण - सुदामा (खण्ड - ३)

कृष्ण - सुदामा (खण्ड - ३) जब जागा तो द्वारिका में था कैसे पहुँचा ? यह समझा न था अब दामा ने सोचा मन में आ पहुँचा! तो क्यों न मिले उससे मन पक्का करके जाएगा और जाते ही उसे बताएगा मुझे कुछ भी नहीं चाहिए उससे बस मिलने की इच्छा है मन में वो नहीं मिलेगा ! तो भी क्या? वह दूर से उसको देखेगा उसे देख के खुश हो जाएगा यहाँ आना सफल हो जाएगा यह सोच के पहुँच गया वह द्वार और करेगा वहाँ बैठ इंतज़ार कभी तो कृष्ण वहाँ आएगा और वह दर्शन कर पाएगा पर द्वारिका नगरी में कोई जन इस तरह तो नहीं रह सकता खाने को चाहे कुछ न हो पर भूखे नहीं कोई सो सकता वह नगरी समृद्धि से सम्पन्न जहाँ रहती है लक्ष्मी ही स्वयं वहाँ पर दिख गया कोई ऐसा जन जिसका आधा नंगा है तन वह द्वारिका का नहीं हो सकता यूँ बाहर ही नहीं सो सकता यह देखा तो आया द्वारपाल दामा से करने लगा सवाल तुम कौन हो? कहाँ से आए हो? और कैसे कपड़े पाए हो? हाथ जोड़ बोला ब्राहमण श्री कृष्ण से मिलने का है मन हम दोस्त हैं बचपन के सच्चे हम दोनों ही थे तब बच्चे किरपा होगी जो मिलवा दो सुदामा हूँ मैं उसको बतला दो सुन द्वारपाल यूँ हँसने लगे और बातें बहुत ही करने लगे पर एक था उनमें

कृष्ण - सुदामा (खण्ड - २)

कृष्ण - सुदामा (खण्ड - २) हर्षित है उसका मन ऐसे मिल गया हो नव जीवन जैसे जैसे ही दामा ने कदम बढ़ाया कृष्ण को भी वो याद था आया बोले रुक्मणी से तब कृष्णा याद आ रहा मुझे सुदामा गुरुकुल के हम ऐसे बिछुड़े और फिर अब हम कभी न मिले कृष्ण ऐसे बतियाते जाते दामा की बात बताते जाते हँस देते कभी अनायास ही और कभी भावुक हो जाते रुक्मणी भी सुनकर हुई मग्न भावुक हो गया उसका भी मन क्या दोनों ही दोस्त सच्चे पर तब थे दोनों ही बच्चे इधर रास्ते पे चलते-चलते याद कृष्ण को करते-करते चल रहा था दामा मस्त हुए लिए चने जो पत्नी ने थे दिए जाकर के कृष्ण को दे देना और सीधे-सीधे कह देना मजबूर है आज उसकी भाभी कुछ और नहीं वो दे सकती सुदामा मन में विचार करे श्री कृष्ण की ही पुकार करे वह बन गया है द्वारिकाधीश क्या मुझे पहचानेगा जगदीश बस सोच-सोच चलता जाता और आगे ही बढ़ता जाता वह है राजा और मैं हूँ दीन वो दिन नहीं जब खाते थे छीन मेरे पास तो ऐसे वस्त्र नहीं और ऐसा भी कोई अस्त्र नहीं जिससे मैं राजा से मिल पाऊँ मैं कौन हूँ ऐसा बतलाऊँ ? क्यों कृष्ण उसे पहचानेगा? क्यों दोस्त उसको मानेगा? वह तो अब भूल गया होगा गुरुकुल उसे याद कहाँ हो

कृष्ण - सुदामा (खण्ड - १)

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संजीवनी के द्वितीय खण्ड कृष्ण-सुदामा में श्री कृष्ण और सुदामा के मधुर मिलन का वर्णन है यह तेीन भागों मे विभक्त है कृष्ण - सुदामा (खण्ड - १) हरे कृष्ण - हरे श्यामा हर पल जाप करे सुदामा थी मन में उसके खुशी अनंत जीवन में आ रहा था बसंत पत्नी का शुक्र करे हर पल मिल जाएगी उसको मंज़िल सोच के मन हर्षित है उसका इंतज़ार वर्षों से जिसका पूरा होगा अब वो सपना मिलेगा उसको दोस्त अपना आज जब उससे बोली सुशीला क्यों है ऐसे सुदामा ढीला? जाओ तुम कृष्ण से मिलकर आओ और थोड़े दिन मन बहलाओ सुन के खुश हो गया था मन में हुआ रोमांच पूरे ही तन में याद कर रहा दिन बचपन के बिताए इकट्ठे जो थे वन में गुरुकुल में वे साथ थे रहते सुख-दुख इक दूजे से कहते जंगल से वो लकड़ी लाते आकर गुरु माता को बताते गुरु माता खाना थी बनाती और प्यार से उन्हें खिलाती आज सुदामा हो रहा भावुक बता रहा था बात वो हर इक कैसे वे इकट्ठे थे पढ़ते और दोनों ही खेल थे करते कभी-कभी था कृष्ण छुप जाता और फिर उसको बड़ा सताता ढूँढने से भी हाथ न आता देख सुदामा को छुप जाता ढूँढ-ढूँढ जब वह थक जाता तब ही कान्हा पास आ जाता सुदामा जब था रूठ ही जाता तो बड़े प्यार से उस

ब्रजबाला -5 राधा-कृष्ण संवाद

संजीवनी के प्रथम खण्ड ब्रजबाला भाग ५ मे श्री राधा-कृष्ण संवाद और अमर प्रेम का वर्णन है राधा-कृष्ण संवाद सुनी देवो की जो करुण पुकार हुई कृष्ण की दृष्टि भी अपार जब देखी उग्र रूप राधा कान्हा ने यह निर्णय साधा किसी तरह राधा को मनाऊँ मैं अपना स्वरूप बताऊँ मैं कान्हा ने मन में विचार किया चतुर्भुज रूप साकार किया राधा ने देखा जो सम्मुख कान्हा को देख के हुई चकित गिर कर के राधा चरणों पर रो-रो कर कहती, हे नटवर राधा की सौंगंध है तुमको मथुरा न जाओ तजकर हमको बिन तेरे जी न पाएँगे तुम्हे बिन देखे मर जाएँगे अधूरी है तुम बिन यह राधा इस लिए मैंने निर्णय साधा जो मधुपुरी को तुम जाओगे जिंदा न मुझे फिर पाओगे मैं प्राण त्याग दूँगी कान्हा रहेगा तुम पर यह उलाहना इक प्रेम दीवानी मौन हुई कहो प्रेम में ग़लती कौन हुई? गिरा ब्रजरानी का अश्रुजल धुल गये कान्हा के चरण-कमल हाथों से उसे उठाते हैं फिर प्यार से गले लगाते हैं राधा के पोंछते हुए नयन बोले कान्हा यह मधुर वचन तुम क्यों अधीर हो रही प्रिय अब ध्यान से मेरी सुनो विनय तुम प्रेम की देवी हो राधे सब प्रेम से ही कारज साधे फिर रूठी है क्यों मेरी प्रिया कहो, तुम बिन मैंने

ब्रजबाला-4. देव स्तुति

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संजीवनी के प्रथम खण्ड ब्रजबाला के इस चौथे भाग मे देवों द्वारा श्री राधा जी की स्तुति की गई है जब राधा जी श्री कृष्ण जी के मथुरा जाने की बात सुन कर क्रोधित हो उठती है तो देव श्री कृष्ण स्तुति कर श्री राधा जी को शान्त करने की प्रार्थना करते हैं देव स्तुति जय कृष्ण कृष्ण जय जय गोपाल जय गिरधारी जय नंदलाल जय कृष्ण कन्हैया मुरलीधर जय राधा वल्लभ जय नटवर जै बंसी बजैया मन मोहन हम आए हैं तेरी शरणम जय जय गोविंद जय जय गोपाल जै रास रचैया दीन दयाल जय जय माधव जय मुरलीधर हम आए तेरे दर नटवर जय रसिकेश्वर जै जै घनश्याम हे मन भावन हे सुंदर श्याम जय ब्रजेश्वर जय जय गिरधर किरपा करो वृंदावनेश्वर जय जय माधव जय मधुसूदन जय दामोदर जय पुरुषोत्तम जय नारायण जय वासुदेव जय विश्व रूप जय जय केशव जय सत्य हरी जय नारायण जय विष्णु केशव जनार्दन जय कृष्ण कन्हैया दीं दयाल जय मुरली मनोहर जय गोपाल जन जीवन का उद्धार करो सब कष्ट हरो सब कष्ट हरो धरती को पाप मुक्त करने आए दुखियों के कष्ट हरने करें हाथ जोरि कर निवेदन राधा का कोप न बने विघ्न *********************************

ब्रजबाला-3. शक्ति स्वरूपिणी राधा

ब्रजबाला भाग तीन शक्ति स्वरूपिणी राधा मे श्री राधा जी की अद्भुत शक्ति और श्री कृष्ण जी के प्रति उनका अनन्य प्रेम व्यक्त किया है जब श्री राधा जी को ( द्वित्तीय भाग-व्याकुल मन ) पता चलता है कि श्री कृष्ण जी माता यशोदा के पुत्र नही है ,वो मथुरा जाने वाले हैं और वहां पर कंस श्री कृष्ण संग युद्ध करने वाला है तो वह अत्यंत क्रोधित हो उठती है इस भाग मे उसी का वर्णन है शक्ति स्वरूपिणी राधा सुनो ब्रह्मा विष्णु औ महेश गंधर्व मुनि किन्नर औ शेष हे गौरी चन्डी काली शक्ति, की मैंने जो जीवन में भक्ति उस बल पर मैं पुकारती हूँ रिपु कंस को मैं ललकारती हूँ कान्हा से प्रेम किया है तो जीवन भर उसे निभाऊँगी प्रण करती हूँ यह कंस को मैं मारूँगी या मार जाऊँगी कान्हा जो नहीं रह पाएगा सृष्टि में न कोई बच पाएगा मैं भयंकर प्रलय मचा दूँगी दुनिया को कर स्वाह दूँगी राधा ने ये जो शब्द बोले शिवजी ने तीन नेत्र खोले सृष्टि में हाहाकार हुआ भयभीत सारा संसार हुआ तूफान उठे बिजली कड़की जलधारा उल्टी बह निकली त्रिलोक में हुआ कंपन भयभीत हुए सब देवतगन शिवजी से करने लगे पुकार सृष्टि का कहीं न हो संहार हे ब्रह्म पिता सृष्टि पालक रक्षा

ब्रजबाला-2. व्याकुल मन

संजीवनी के प्रथम खण्ड ब्रजबाला का यह द्वितीय भाग ,जिसमे श्री राधा को किसी अनहोनी का भय सताता है और श्री कृष्ण की कुशल-मंगल की कामना करती है उसका मन व्याकुल है , इसमे श्री राधा -ललिता (सखी) संवाद है व्याकुल मन राधा - व्याकुल आज मेरा मन क्यों ? क्यों चैन कहीं नहीं पाता है ? तड़प-तड़प कर हृदय यह, जैसे बाहर को आता है। हैं फरक रहे दाहिने अंग क्यों ? अमंगल संकेत कराते हैं। यह नेत्र मेरे अश्रु जल से, क्यों बार-बार भर जाते हैं ? मेरा रोम-रोम क्यों काँप रहा ? ज्वाला हृदय में धधक रही। दर्शन की प्यासी यह आँखें, क्यों बार-बार यों छलक रहीं ? कहीं फिर न हों संकट में प्रियतम, यह बार-बार दिल गाता है। हे गौरी माँ हो रक्षक तुम, तू जग-जननी शक्ति माता है। हे शिव शंकर तुम सदा शिव हो, कुछ मेरा भी कल्याण करो। कान्हा का बाल न बाँका हो, चाहे मेरे ही तुम प्राण हरो। हे ब्रह्म सुनो सृष्टि करता, हे भाग्य विधाता दुख हरता। अपना यह नाम साकार करो, मेरे प्राण-प्रिय का उद्धार करो। हे गणपति बाबा जागञानदन, करती हूँ तेरा अभिनंदन। देखो यह मेरा करुण रुदन, जल्दी काटो हमरे बंधन। हे राम भक्त बजरंग बली, देखो अब मेरी जान चली।

ब्रजबाला- 1.प्रार्थना

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ब्रजबाला ब्रजबाला मे श्री राधा-कृष्ण के अमर प्रेम को व्यक्त करने का एक अति लघु प्रयास है। जब श्री राधा जी को पता चलता है कि श्री कृष्ण ब्रज छोड़ कर मथुरा जाने वाले है तो तो वह व्याकुल हो उठती है। इसी का वर्णन इस कविता के माध्यम से किया गया है। यह पाँच भागों में विभक्त है : 1. प्रार्थना 2. व्याकुल मन 3. शक्ति स्वरूपिणी राधा 4. देव स्तुति 5. राधा-कृष्ण संवाद प्रार्थना स्वामिनी मेरी श्री राधिका मैं ब्रजरानी की दास पावन चरणन में प्रीति रख लेकर के अटल विश्वास श्री बिहारी जी की प्रेरणा और प्रिया दर्शन की आस करती हूँ कर जोरि के तुम्हें बार-बार प्रणाम मेरे हृदय को तृप्त करो पावन है तुम्हारो नाम भव सागर से तर जाऊँ मैं गाऊँ मैं आठों याम तेरा नाम सुमिर श्री राधिका पाऊँ श्री कृष्ण पद धाम यही आशा इस मन की है गुण-गान तेरा गाते-गाते जीवन को सफल बनाऊँ मैं इस दुनिया से जाते-जाते मैं नहीं काबिल लेकिन फिर भी चाहती हूँ कुछ तो काम करूँ है सोच-सोच कर देख लिया क्यों न मैं तेरा ध्यान धरूँ हैं शब्द नहीं लेकिन फिर भी मैं तेरा ही गुण-गान करूँ जो थाह मिले तेरे चरणन की फिर क्यों मैं चारों धाम करूँ माँ मुझे इतनी स